गांव पूंछरी ने मिट्टी के तवों के रूप में बनाई देशभर में पहचान

भरतपुर. भोजन पकाने की विभिन्न आधुनिक तकनीक बाजार में आ चुकी हैं लेकिन जो मिट्टी की सौंधी सुगंध से हमारे पूर्वजों का जो नाता रहा है उसे कभी अलग नहीं किया जा सकता। जब हमारे पूर्वज मिट्टी के तवे पर रोटियां सेंकते थे तो इन रोटियों में मिट्टी की जो सौंधी गंध समाहित हो जाती थी। उसे कुछ समय तो भुला दिया लेकिन अब पुन: लोग मिट्टी के तवे पर रोटी सेंकना अधिक पसंद कर रहे हैं। यही कारण है कि भरतपुर जिले का पूंछरी गांव के प्रजापति जाति के परिवार मिट्टी के तवे बनाकर प्रतिवर्ष करीब 80 लाख रुपए का कार्य कर रहे हैं और आज यह गांव तवे वाले गांव के नाम से अधिक पहचाना जाने लगा है।
बात अधिक पुरानी नहीं है, पूंछरी गांव में प्रजापति जाति के करीब 35 परिवार मेहनत मजदूरी अथवा मिट्टी के बर्तन बनाकर विक्रय करने का काम करते आ रहे थे। इन लोगों के बाद रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधन नहीं थे। ऐसी स्थिति में सोमोती के परिवार ने सर्वप्रथम मिट्टी के तवे बनाकर गांव में बेचना शुरू किया। तवा बनाने के लिए मीठा भूमिगत जल और पोखर की काली मिट्टी का उपयोग किया जाने लगा। इससे सोमोती के परिवार की ओर से बनाए गए मिट्टी के तवे अधिक मजबूत होने के साथ ही उनमें मिट्टी की सौंधी सुगंध रोटियों में समाहित होने लगी। इससे लोगों में इस गांव के बने तवों की मांग बढ़ती चली गई। धीरे-धीरे गांव के सभी 35 प्रजापति समाज के लोग इस काम में जुट गए। प्रजापति समाज के प्रहलाद ने बताया कि करीब 20 वर्ष पहले गांव में पूरे वर्ष लगभग एक डेढ़ हजार तवे बनते थे लेकिन लोगों को मिट्टी के तवों के प्रति बढ़ रहे आकर्षण को देखकर इनकी संख्या करीब 30 गुना बढ़ गई। इसके अलावा बाजार की मांग के अनुरूप भी तवों का निर्माण किया जाने लगा। मुख्य रूप से गैस अथवा हीटर पर उपयोग किए जाने वाले तवों की डिजाइन एवं मोटाई में परिवर्तन किया गया ताकि कम समय में रोटी अथवा अन्य भोज्य पदार्थ तैयार हो सकें। तवे बनाने के लिए प्रजापति समाज के लोग गांव की पोखर से काली व दोमट मिट्टी का उपयोग करते हैं। इस मिट्टी को सुखाने एवं इसमें से कंकड़ आदि अलग कर गूंदने का कार्य परिवार के सभी लोग करते हैं और औसतन एक परिवार प्रतिदिन करीब 300-400 तवे बना लेता है। इन्हें पकाने के लिए ये लोग गांव एवं आसपास के क्षेत्रों में पैदा होने वाली सरसों की तुरी खरीदकर लाते हैं। इसका पूरे वर्ष उपयोग किया जाता है। इसके अलावा गोबर के उपले व लकडिय़ां आदि का भी तवे पकाने में उपयोग किया जाता है। वैसे तो तवे बनाने का कार्य पूरे वर्ष चलता है किन्तु बरसात एवं अधिक ठण्ड के दिनों में यह काम बन्द रहता है। एक संस्था ने पूंछरी गांव के तवा बनाने वाले प्रजापति समाज के लोगों की समस्या से निजात दिलाने के लिए टिनशेडों का निर्माण कराया है ताकि वे वर्षाकाल में भी अपना कार्य जारी रख सकें और बनाए गए तवों को टिनशेड के नीचे रखकर वर्षा से बचा सकें।
पूंछरी गांव में बने तवों को भरतपुर जिले के अलावा, अलवर, दौसा, करोली, हरियाणा के फरीदाबाद, गुडग़ांवां, नूंह मेवात व उत्तरप्रदेश के मथुरा व आगरा जिलों के व्यापारी खरीदकर ले जाते हैं जो इन्हें 8-10 रुपए प्रति नग की दर से बेचते हैं। तवों को पकाते समय करीब 25 प्रतिशत तवे टूट जाते हैं इससे इन परिवारों को काफी नुकसान होता है। तवा बनाने वाले प्रजापति समाज के लोगों में अभी भी शिक्षा के प्रति कोई जाग्रति नहीं आई है और अधिकांश लोग अपने इसी परम्परागत व्यवसाय में लगे हुए हैं। सामाजिक एवं आर्थिक उन्नयन की दृष्टि में कार्य करने वाली संस्था ने पूंछरी गांव के इन प्रजापति परिवारों के लिए विशेष कार्य योजना तैयार की है इसके तहत वर्षा काल में पानी से भीग जाने से तवों के होने वाले नुकसान को रोकने के लिए टिनशैडों का निर्माण कराया जाएगा।



source https://www.patrika.com/bharatpur-news/nationwide-recognition-made-as-clay-pan-6797555/

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